उत्साह एवं अट नहीं रही है – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जीवन परिचय- Suryakant Tripathi Nirala Ki Jeevani:
दुखों व संघर्षों से भरा जीवन जीने वाले विस्तृत सरोकारों के कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जीवन काल सन 1899-1961 तक रहा। उनकी रचनओं में क्रांति, विद्रोह और प्रेम की उपस्थिति देखने को मिलती है। उनका जन्मस्थान कवियों की जन्मभूमि यानि बंगाल में हुआ। साहित्य के क्षेत्र में उनका नाम अनामिका, परिमल, गीतिका आदि कविताओं और निराला रचनावली के नाम से प्रकाशित उनके संपूर्ण साहित्य से हुआ, जिसके आठ खंड हैं। स्वामी परमहंस एवं विवेकानंद जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों से प्रेरणा लेने वाले और उनके बताए पथ पर चलने वाले निराला जी ने भी स्वंत्रता-संघर्ष में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता का सार- Kavita ki Saaransh:
उत्साह कविता निराला जी के सबसे पसंदीदा विषय बादल पर रचित है। यह कविता बादल के रूप में आये दो अलग तरह के बदलावों को दर्शाती है। इस कविता के माध्यम से निराला जी ने जीवन को एक अलग दिशा देने एवं अपना विश्वास खो चुके लोगों को प्रेरणा देने का प्रयास किया है। कवि बादलों के आने के ज़िक्र के जरिये, जीवन से निराश व हताश लोगों को यह उम्मीद देना चाहते हैं कि चाहे जो कुछ हो, लेकिन आपके जीवन में भी खुशहाली ज़रूर लौटेगी और आपके अच्छे दिन ज़रूर आयेंगे।
कविता में उन्होंने दूसरा अहम संदेश ये दिया है कि जिस तरह बादल बेजान पौधों में नई जान डाल देते हैं, वैसे ही मनुष्य को सारे दुखों को भूलकर अपने जीवन की नयी शुरुआत करनी चाहिए और ज़िंदगी में हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए। मुख्य रूप से निराला जी ने यह कविता हमारे भीतर सोयी क्रांति को फिर से जगाने के लिए लिखी है।
अट नहीं रही है कविता में कवि ने प्रकृति की व्यापकता का वर्णन बड़े ही सुन्दर ढंग से किया है। होली के समय जो महीना होता है, उसे फागुन कहा जाता है। उन्होंने इस कविता में, इस महीने में प्रकृति एवं मानवीय मन में होने वाले बदलाव को बड़े ही सुंदरता से दिखलाया है। फागुन के समय पूरी प्रकृति खिल-सी जाती है। हवाएं मस्ती में बहने लगती हैं, फूल खिल उठते हैं और आसमान में उड़ते पक्षी सबका मन मोह लेते हैं। इस तरह प्रकृति को मस्ती में देखकर मनुष्य भी मस्ती में आ जाता है और फागुन के गीत, होरी, फाग इत्यादि गाने लगता है।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता- उत्साह
बादल, गरजो!
घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ !
ललित ललित, काले घुंघराले,
बाल कल्पना के -से पाले,
विधुत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले !
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो –
बादल गरजो !
विकल विकल, उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन !
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो –
बादल, गरजो
Class 10 Hindi Kshitij Chapter 5 Saaransh
बादल, गरजो!
घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ !
ललित ललित, काले घुंघराले,
बाल कल्पना के -से पाले,
विधुत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले !
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो –
बादल गरजो !
कविता का भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने बारिश होने से पहले आकाश में दिखने वाले काले बादलों के गरज़ने और आकाश में बिजली चमकने का अद्भुत वर्णन किया है। कवि कहते हैं कि बादल धरती के सभी प्राणियों को नया जीवन प्रदान करते हैं और यह हमारे अंदर के सोये हुए साहस को भी जगाते हैं।
आगे कवि बादल से कह रहे हैं कि “हे काले रंग के सुंदर-घुंघराले बादल! तुम पूरे आकाश में फैलकर उसे घेर लो और खूब गरजो। कवि ने यहाँ बादल का मानवीयकरण करते हुए उसकी तुलना एक बच्चे से की है, जो गोल-मटोल होता है और जिसके सिर पर घुंघराले एवं काले बाल होते हैं, जो कवि को बहुत प्यारे और सुन्दर लगते हैं।
आगे कवि बादल की गर्जन में क्रान्ति का संदेश सुनाते हुए कहते हैं कि हे बादल! तुम अपनी चमकती बिजली के प्रकाश से हमारे अंदर पुरुषार्थ भर दो और इस तरह हमारे भीतर एक नये जीवन का संचार करो! बादल में वर्षा की सहायता से धरती पर नया जीवन उत्पन्न करने की शक्ति होती है, इसलिए, कवि बादल को एक कवि की संज्ञा देते हुए उसे एक नई कविता की रचना करने को कहते हैं।
विकल विकल, उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन !
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो –
बादल, गरजो
कविता का भावार्थ :- कवि बादलों को क्रांति का प्रतीक मानते हुए यह कल्पना कर रहे हैं कि वह हमारे सोये हुए पुरुषार्थ को फिर से जगाकर, हमें एक नया जीवन प्रदान करेगा, हमें जीने की नई आशा देगा। कवि इन पंक्तियों में कहते हैं कि भीषण गर्मी के कारण दुनिया में सभी लोग तड़प रहे थे और तपती गर्मी से राहत पाने के लिए छाँव व ठंडक की तलाश कर रहे थे।
तभी किसी अज्ञात दिशा से घने काले बादल आकर पूरे आकाश को ढक लेते हैं, जिससे तपती धूप धरती तक नहीं पहुँच पाती। फिर बादल घनघोर वर्षा करके गर्मी से तड़पती धरती की प्यास बुझाकर, उसे शीतल एवं शांत कर देते हैं। धरती के शीतल हो जाने पर सारे लोग भीषण गर्मी के प्रकोप से बच जाते हैं और उनका मन उत्साह से भर जाता है।
इन पंक्तियों में कवि ये संदेश देना चाहते हैं कि जिस तरह धरती के सूख जाने के बाद भी बादलों के आने पर नये पौधे उगने लगते हैं। ठीक उसी तरह अगर आप जीवन की कठिनाइयों के आगे हार ना मानें और अपने पुरुषार्थ पर भरोसा रखकर कड़ी मेहनत करते रहें, तो आपके जीवन का बगीचा भी दोबारा फल-फूल उठेगा। इसलिए हमें अपने जीने की इच्छा को कभी मरने नहीं देना चाहिए और पूरे उत्साह से जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए।
अट नहीं रही है
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में
मंद गंध पुष्प माल,
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है।
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कविता का भावार्थ :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने फागुन के महीने की सुंदरता का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। होली के वक्त जो मौसम होता है, उसे फागुन कहते हैं। उस समय प्रकृति अपने चरम सौंदर्य पर होती है और मस्ती से इठलाती है। फागुन के समय पेड़ हरियाली से भर जाते हैं और उन पर रंग-बिरंगे सुगन्धित फूल उग जाते हैं। इसी कारण जब हवा चलती है, तो फूलों की नशीली ख़ुशबू उसमें घुल जाती है। इस हवा में सारे लोगों पर भी मस्ती छा जाती है, वो काबू में नहीं कर पाते और मस्ती में झूमने लगते हैं।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
कविता का भावार्थ :- इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि घर-घर में उगे हुए पेड़ों पर रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं। उन फूलों की ख़ुशबू हवा में यूँ बह रही है, मानो फागुन ख़ुद सांस ले रहा हो। इस तरह फागुन का महीना पूरे वातावरण को आनंद से भर देता है। इसी आनंद में झूमते हुए पक्षी आकाश में अपने पंख फैला कर उड़ने लगते हैं। यह मनोरम दृश्य और मस्ती से भरी हवाएं हमारे अंदर भी हलचल पैदा कर देती हैं। यह दृश्य हमें इतना अच्छा लगता है कि हम अपनी आँख इससे हटा ही नहीं पाते। इस तरह फागुन के मस्त महीने में हमें भी मस्ती से गाने एवं पर्व मनाने का मन होने लगता है।
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में
मंद गंध पुष्प माल,
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है।
कविता का भावार्थ :- कवि के अनुसार फागुन मास में प्रकृति इतनी सुन्दर नजर आती है कि उस पर से नजर हटाने को मन ही नहीं करता। चारों तरफ पेड़ों पर हरे एवं लाल पत्ते दिखाई दे रहे हैं और उनके बीच रंग-बिरंगे फूल ऐसे लग रहे हैं, मानो पेड़ों ने कोई सुंदर, रंगबिरंगी माला पहन रखी हो। इस सुगन्धित पुष्प माला की ख़ुशबू कवि को बहुत ही मादक लग रही है। कवि के अनुसार, फागुन के महीने में यहाँ प्रकृति में होने वाले बदलावों से सभी प्राणी बेहद ख़ुश हो जाते हैं। कविता में कवि स्वयं भी बहुत ही खुश लग रहे हैं।